श्री श्री ठाकुर की भावधारा


छोटी मुंह बड़ी बात ! श्री श्री ठाकुर की भावधारा को जानने और समझने के लिए चाहिए अधिक से अधिक यजन (इष्ट परायण होकर नाम-ध्यान) की आवश्यकता है । सत्संग में भाग लेकर ऋत्विक देवों के विचारों को सुनना और श्री श्री ठाकुर की आज्ञा समझ उनका पालन करना । 

1. प्रेम और श्री श्री ठाकुर 

सत्यानुसरण ग्रन्थ में श्री श्री ठाकुर कहते है :

 - "जिस साधना को करने से हृदय में प्रेम आता है वही करो और जिससे क्रूरता, हिंसा आती है वह फ़िलहाल लाभजनक भी हो तो भी उसके नजदीक मत जाओ । 
         तुमने यदि ऐसी शक्ति प्राप्त कर ली है जिससे चन्द्र - सूर्य को कक्षच्युत कर सकते हो, पृथ्वी को टुकड़ा -टुकड़ा कर सकते हो या  सभी को ऐश्वर्यशाली कर दे शकते हो, किन्तु यदि हृदय में प्रेम नहीं रहे तो तुम्हारा कुछ हुआ  ही नहीं ।"

अर्थात प्रेम उत्पन्न होना ही बड़ी बात है। सबके लिए जगत के हर जीव के लिए, जैसे श्री श्री ठाकुर एक छोटे से बिष्टा (मल ) में रेंगने वाले कीड़े का भी ख्याल रखते थे की कही मर न जाय । इसलिए इन्हें परम प्रेममय कहा गया । हर जीव में हर दिल में  प्रेम कहा से आया ? तो दयाल धाम के मालिक स्वयं श्री श्री ठाकुर कहते है कि प्रेमी (ईष्ट ) के संग प्रेम करने से प्रेम हो जाता है जो हृदय विनमय का एक लक्षण है जो परम प्रेममय से आया है । जब कोई श्री श्री ठाकुर से मिलने के लिए आता था तो दया से सागर स्वयं उठकर उसे प्रेमालिंगन में दोनों बाहें फैलाकर बांध लेते थे और हाल - चाल पूछना शुरू कर देते थे जैसे लगता था कि राम से मिलने वन में भरत आये है । 

एक दिन अजीत दा ने श्री श्री ठाकुर से पूछा कि मनुष्य किसी न किसी को तो प्रेम करता ही है किन्तु उससे उसका कष्ट तो दूर नहीं होता ? इस पर श्री श्री ठाकुर ने कहा - "इसलिए इष्ट को प्रेम करना है मन-प्राण देकर । इष्ट माने मूर्त मंगल । He is the man of solved complexes  (वे समाहित -वृति के व्यक्ति होते है ) उनको प्रेम करने से (complex ) वृति वगैरह (solution) समाधान के पथ पर चलते है । " 

इस प्रेम से ही सब कुछ पाया जा सकता है । इस प्रेम के बल पर मनुष्य परमात्मा को पा लेता है । एक मनुष्य एक मनुष्य को पा लेता है , एक स्त्री अपने स्वामी को पा लेती है, एक प्रेमी अपने प्रेमिका को पा लेता है, एक राजा अपने प्रजा को पा लेता है आदि बहुत से उदहारण है । आज यदि धर्मयुद्ध छिड़ जाये तो क्या भगवान राम की तरह वाण, श्री कृष्ण की तरह चक्र, क्या है हमारे श्री श्री ठाकुर के पास ? मैं यही सोंचकर नाम- जप कर रहा था कि अचानक मेरी हृदय गति कई गुना बढ़ गई । और मैं नाम के साथ साथ उसी आंतरिक आत्मिक दुनिया में जा पहुंचा जहाँ शिष्य अपने गुरु से संवाद करता है । प्रभु ने कहा - "मेरे पास तो 'प्रेम' नाम का एक ऐसा चक्र सुदर्शन है जिससे अच्छों - अच्छों को धराशायी कर सकता हूँ। देखना यदि कभी भविष्य में धर्मयुद्ध  मुझे लड़ना पड़ा तो इसी प्रेम रुपी चक्र-सुदर्शन से मैं ये धर्म युद्ध जीतकर दिखाऊंगा। तुम सभी इसके साक्षी बनोगे" मुझे ये समझते देर न लगी की प्रभु क्या कहना चाहते है ? ये वही जान सकता है जिसे वे जनाना चाहते है । रामचरितमानस  में एक इसी पर दोहा है लेकिन मुझे वो ठीक से याद नहीं । शायद कुछ ऐसे है :

वही जानत, जेहि देत जनाई ।

एक बार विराज दा बोले -"भाव में ही विश्वास की प्रतिष्ठा है । युक्ति-तर्क विश्वास को  ला सकता । भाव जितना पतला होता है विश्वास भी उतना पतला होता है, निष्ठा भी उतनी कम होती है ।"
श्री श्री ठाकुर - "भाव का अर्थ जानते है न ? भाव का अर्थ होता है बनना । बनने के पीछे कर्म होता है । जिसकी करनी जीतनी अधिक होती है उसका भाव या बनना भी उतना ही होता है । और भाव का अर्थ अनुराग भी होता है अर्थात इष्ट के लिए कर्म और प्रेम जिसका जितना अधिक होता है उसका विश्वास भी उतना गहरा होता है ।"

आलोचना - प्रसंग भाग- तीन पृष्ठ सं0 267
 
उपरोक्त आलोचना से ये पता चलता है कि कर्म और प्रेम से ही विश्वास पैदा होता है । जो जानकर समझ कर भी  कुछ नहीं करता उसका भला असंभव है , जड़ बन जाता है । विश्वास जितना कम करता है समझाना चाहिए की वह प्रेम भी नहीं करता ।









               

3 comments:

  1. जय गुरु दादा! अति सुन्दर विश्लेषण.

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  2. सभी को जय गुरु !!

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